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ग़ज़ल

ग़ज़ल
फ़िर आई उसकी याद, कल रात चुपके-चुपके..,
बहके मेरे जज़्बात , कल रात चुपके-चुपके...!!

दीवानावार हो के , हमने बहाए आंसू ...,
रोई ये कायनात , कल रात चुपके-चुपके...!!

मेरी आंखे हुई पुरनम , उनके दिए अश्कों से...,
ये लाये वो सौगात , कल रात चुपके-चुपके...!!

शह देते रहे हमको, दिखला के हुस्न का ज़लवा...,
फ़िर खायी हमने मात, कल रात चुपके-चुपके...!!

मेरी बेबसी का मंज़र , नही देख पाया वो भी...,
रोया था माहताब , कल रात चुपके - चुपके...!!

रौशन थे जो बरसों से, तेरे वादे की लौ से 'वर्मा'...,
गुल हो गये चिराग, कल रात चुपके-चुपके...!!

2 comments:

निर्मला कपिला said...

महक उठती ये फिजायें, हर-सू तेरी आमद से,
गुल बनके तू चमन में, गर मुस्कुराया होता....!!

कासिद के सामने यूँ , न ज़लील होते हम भी ,
ख़त के जवाब में गर, ख़त तेरा आया होता...!!
वाह बहुत्खूब वर्मा जी यी इतनी अच्छी गज़लें कहाँ छुपा कर रखी थीं आपने कभी कवि सम्मेलन मे सुनाई नहीं । खैर आब रोज़ पढने को मिलेंगी । बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें

AKHRAN DA VANZARA said...

Thanks a lot once again M'am...

ye sab aap ke maargdarshan se hi sambhav hua hai...

kripya ye sneh banaaye rakhen...
Dhannayavaad...